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कविता

दुनिया की रफ्तार से बाहर खड़े लोगों के लिए

बसंत त्रिपाठी


1

हम सब एक कतार में खड़े थे
मैं धकिया कर लाया गया था
और मेरे चेहरे पर दौड़ के पहले की व्यग्रता का मुखौटा था
मेरी रुलाई उसके पीछे छुपी थी
जिसे सिर्फ मैं ही जानता था

आखिरकार धाँय की आवाज हुई
तीर की तरह छुटे सब अपनी जगहों से
मैं हक्का-बक्का खड़ा रहा
अपनी ही जगह
सबको अपने से दूर जाते देखता हुआ

दूसरी धाँय का निशाना
मेरा एक घुटना था

मैं हँसते हुए मुखौटे के साथ
दौड़ के बाहर लाया गया।

2

दुनिया की रफ्तार के अपने नियम थे
जो यक-ब-यक स्वनिर्मित लगते थे

मैं सुबह उठा सूरज के चढ़ आने के बाद
मैं थोड़ी देर और लेटे रहना चाहता था
लेकिन समय नहीं था इसके लिए

और अब मैं भी
शहर की दौड़ में शामिल था

मेरी स्मृति में लेकिन आज
रह-रहकर एक चिड़िया की कौंध उठती थी
जिसे कल पहली बार मैंने
अपनी खिड़की की रेलिंग में देखा था

मैं बारिश का इंतजार करते हुए
दौड़ में शामिल था
इस तरह दौड़ से अलग भी था।

3

सूखे दौड़ते पत्ते
गिरे बिखरे फूल
उपयोगिता के बाहर पॉलीथिन के पैकेट
और उन्हें बीनता हुआ एक

गर्मियों की रातें
रुकी हुई रुलाई
प्यास से बिद्ध टूटे अधूरे सपने
और उन्हें याद करता हुआ एक

आवारा कुत्ते
मस्त पंछी
मृत्यु का इंतजार करते बूढ़े
विकास की परिभाषा से बाहर खदेड़ दिए गए लोग
और खुद मैं

अचानक समय ने कहा -
निकलो यहाँ से, चुपचाप
इस सदी में जीने लायक नहीं हो तुम

फिर हमें टाइम मशीन में डाल कर
भेज दिया गया
गुजरी शताब्दी के पराजित कोनों में

अच्छा हुआ!
हम वहीं से लौटेंगे
जो गलत हुआ उसे ठीक करते हुए

 


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